“अनासक्त – भाव”

प्रेम में विसर्जन है तो मोह में बंधन

मानव जीवन कर्म प्रधान है और कर्मशील रहते हुए, अनासक्त भाव में रहना ही ईश्वरीय अनुकंपा की अनुभूति है। अनासक्त भाव किसी योग से कम नहीं और जिस पर यह अनुकंपा हो जाती है वो किसी योगी से कम भी नहीं।

ईशावास्योपनिषद् में एक सूत्र है –
” तेन त्यक्तेन भुंजीथा: ” इसका अर्थ है – जो त्याग करते हैं वे ही भोग पाते हैं। यह सुनने में विरोधाभासी प्रतीत होता है क्योंकि त्याग और भोग तो सर्वथा विपरीत अवस्था है फिर इन दोनों में सामंजस्य कैसे बनाया जा सकता है। लेकिन तेन त्यक्तेन भुंजीथा: का सीधा और सरल अभिप्राय है – त्यागपूर्वक भोग। अर्थात जितनी आवश्यकता है उतना ही भोग करना। चाहे धन हो या अन्य भोग सामग्री, आवश्यकता से अधिक की कामना विनाश के पथ की ओर ही अग्रसर करती है। व्यक्तिगत और दैनिक जीवन में इसके कई उदाहरण हम देख सकते हैं, इसीलिए दैनिक जीवन चर्या में त्यागपूर्वक भोग को ही उचित बताया गया है।

द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन जैसे श्रेष्ठि को भी बीच समर में कर्मयोग का पाठ पढ़ाना पड़ा था। ऐसे में कलयुगी बुद्धि वाले सामान्य मनुष्य के लिए निस्वार्थ कर्म करना अति कठीन है। लेकिन निरंतर ईश्वरीय स्मरण, योग साधना और गुरुकृपा से, आसक्ति पर नियंत्रण पाते हुए निर्विकार और अनासक्त भाव का अहसास संभव है। फिर निर्विकार मन में कभी आसक्ति का भाव आ ही नहीं सकता।

मोह – माया का ही दूसरा नाम आसक्ति है। सांसारिक बंधन जैसे विवाह, व्यापार और परिवार के साथ ही दैहिक, भौतिक और आर्थिक संबंध ही आसक्ति के मूल कारक हैं। इसके परिणाम स्वरूप ही स्वार्थ, लालच , अपराध, अपना, पराया जैसे विकारों का जन्म होता है। संसार में रहते हुए भी इन सब पर किस प्रकार अंकुश पाया जा सकता है ? क्या सन्यास ही एक मात्र विकल्प है ?

एक बार स्वामी रामकृष्ण देव से एक गृहस्थी ने पूछा कि क्या गृहस्थ के लिए साधना और ईश्वर भक्ति का कोई मार्ग नहीं है ? तो परमहंस देव ने कहा – गृहस्थ एक हाथ से ईश्वर के चरण मजबूती से पकड़ कर दूसरे हाथ से संसार कार्य कर सकता है, जब उचित अवसर आए तो दूसरे हाथ को भी संसार से निकालकर ईश्वरीय सेवा में लगा देना चाहिए। कामिनी और कांचन पर से आसक्ति हटते ही शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि उत्पन्न हो जाएगी। ईश्वर सांसारिक बुद्धि से गोचर नहीं है लेकिन शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि के गोचर अवश्य है।

संसार से प्रेम करें, मोह नहीं। क्योंकि मोह ही सब दुखों की जड़ है। प्रेम में विसर्जन है जबकि मोह में बंधन है। ऊपरी स्तर पर चाहे बद्ध रहो लेकिन भीतर से अबद्ध। मन में तो सिर्फ हरी जाप चलता रहे, क्योंकि आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा तो हमें अकेले ही करनी है।

जिस दिन हमारे मन में संसार करने का विकल्प नहीं होगा, समझ लेना उसी दिन से निर्विकल्प साधना की शुरुआत है। कर्ता भाव से ‘ अहंकार ‘ की पुष्टि होती है वहीं दृष्टा भाव से ‘ मैं ‘ का नाश होकर समर्पण का भाव जाग्रत होता है। क्योंकि करने वाला तो कोई ओर है, हम तो सिर्फ निमित्त मात्र हैं।

 

आलेख : मधुप्रकाश लड्ढा , राजसमंद