ऐतिहासिक विरासतें हमारी पहचान, इनकी देखरेख हमारा धर्म

प्राचीन ऐतिहासिक एवं खंडहर होती विरासतों को सहेजने के लिए प्रत्येक वर्ष 18 अप्रैल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरासत दिवस मनाया जाता है। उद्देश्य है कि ऐसी इमारतें जो स्वयं का कोई ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, और जो वर्तमान में संरक्षण के अभाव में जर्जर हो रही हैं उन्हे एक विशेष क्रम में लगाकर उनका जीर्णोद्धार किया जाए। सम्पूर्ण विश्व में ऐसी इमारतों की कमी नहीं है। भारत में तो ऐसी अनेकों इमारतें हैं जो अपना एक अलग ही रुतबा और आस्था लोगों के दिलों में बनाए हुये हैं। चाहे फिर वो ऐतिहासिक महत्व हो या धार्मिक, भारत वर्ष में ऐसे भवन आपको हर शहर में मिल जाएंगे। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक शायद ही ऐसा कोई शहर होगा जहां ऐसी कोई इमारत न हो। संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था यूनेस्को ने आगे बढ़कर एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि का रास्ता दुरुस्त किया जो कि विश्व के सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण के प्रति उत्तरदायी है। करीब पचास साल पहले हुई उस सन्धि की ज़िम्मेदारी ये है कि ऐसे भवनों के प्रति लोगों में जागरूकता लाई जाए। विश्व विरासत स्थल समिति द्वारा ऐसे स्थानों का चयन किया जाता है जो मानव सभ्यता के लिए महत्वपूर्ण हैं और इन्ही स्थानों को यूनेस्को के तत्वाधान में संरक्षित किया जाता है। खैर ये तो वो बात है जो यूनेस्को के अधीन आती है और उनकी ही ज़िम्मेदारी है। लेकिन बड़ा सवाल है कि यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल भारत के उन चालीस स्थलों के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक स्थलों की देखरेख और संरक्षण कौन करेगा? ऐसा नहीं है कि किसी ने प्रयत्न नहीं किया है, लेकिन जब जब ऐसे किसी अभियान की शुरुआत होती है तो आमजन के सहयोग और आर्थिक रूप से अक्षमता के कारण ये केवल हमारी सोच तक ही सीमित रह जाते हैं। राजस्थान वीरों का प्रदेश रहा है। यहाँ की मिट्टी का हर एक कण आज से करीब पाँच सौ साल पहले हुये संघर्षों की गवाही देता है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ दुर्ग, रणथंभौर दुर्ग, जैसलमेर दुर्ग, गागरोन दुर्ग आदि विश्व विरासत सूची में शामिल तो हैं लेकिन यहाँ की हालत भी ऐसी है कि देखकर दिल भर आए। वीरता, शौर्य, बलिदान, स्वाभिमान और त्याग के प्रतीक राजस्थान के ये किले पता नहीं किसके प्रभाव से आज इस हालत में खड़े हैं। दोष दें भी तो किसे, बदलाव की शुरुआत खुद से होती है। कड़वा है लेकिन कहना पड़ रहा है कि हम आज ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां अपने घर के सामने गली में झाड़ू लगाते समय ये ध्यान रखा जाता है कि गलती से भी एक इंच स्थान पड़ोसी के हिस्से वाली जगह साफ न हो जाए। ऐसी परिस्थितियों में हम किसी से क्या उम्मीद कर सकते हैं? सोचने वाली बात है कि आखिर लोगों के दिमाग में ये बात क्यों नहीं आती कि ये ऐतिहासिक धरोहरें हमारी पहचान हैं। विश्व पटल पर आज भारत के नाम चल रहा है उसके मुख्य कारणों में एक कारण ये विरासतें भी हैं। ये केवल दुर्गों और किलों तक ही सीमित नहीं है, धार्मिक महत्व से भरे हुये और आस्था के केंद्र भारत के अनेकों मंदिर भी आज उपेक्षा के शिकार हैं। इनमें से अधिकांश तो अपने अंतिम क्षणों में खड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं। सोशल मीडिया पर पोस्ट करने भर से हमारी ये पहचान वापस नहीं आने वाली है। आज सम्पूर्ण विश्व इस विश्व विरासत दिवस पर फेसबुक और ट्वीटर पर अनेकों पोस्ट कर रहा है। लेकिन सच्चाई ये है कि उन्हे ये भी नहीं पता कि उनके ही शहर में एक ऐसी इमारत ऐसे खड़ी है जैसे रेगिस्तान में प्यासा। राजस्थान समेत पूरे भारत में जितनी ऐतिहासिक इमारतें मौजूद हैं जाहिर है कि इन सभी को एक साथ अपने मूल रूप में लाना थोड़ा कठिन कार्य है लेकिन असंभव नहीं है। भारत में ऐसी अनेकों संस्थाएँ कार्यरत हैं जो इन विरासतों को सँवारने का काम कर रही हैं। लेकिन केवल इन्ही के भरोसे ही सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता है। आम नागरिक यदि आर्थिक सहयोग न भी दे पाये तो केवल दूसरों को इस संबंध में प्रेरित करके भी इस विषय में अपना सहयोग दे सकतें हैं। अपने क्षेत्र के सरपंच, प्रधान, विधायक और सांसद इत्यादि जनप्रतिनिधियों के कानों तक ये बात पहुंचा देना ही बहुत बड़ा सहयोग होता है। लेकिन अजीब बात है कि हम ये भी नहीं कर पाते हैं। बड़ी विडम्बना है कि विरासतों के संरक्षण के लिए फेसबुक पर ऐसे अनेकों ग्रुप मौजूद हैं जिनमें लाखों की संख्या में सदस्य भी मौजूद हैं। लेकिन धरातल पर आने की बात पर वे न जाने किस सोच में पड़ जाते हैं। ये सार्वभौमिक सत्य है कि इंसान जो बोयेगा वही काटेगा। आज से कुछ साल पहले अगर इन उपेक्षित विरासतों के संरक्षण के बारे में सोचा गया होता तो आज ये हमें इस हालत में नहीं दिखाई देती। लेकिन आज हम जो दोष पिछली पीढ़ी पर लगा पा रहे हैं, वही दोष आज से कुछ साल बाद हम पर भी लगाए जाएंगे। सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि अगर आज इस समय को हाथ में नहीं लिया गया तो आने वाले कुछ सालों में हमारे पास कुछ भी नहीं होगा जो हम अपने आने वाली पीढ़ी को दिखा सकें और ये कह सकें कि हम उस प्रदेश के निवासी हैं जहां कभी एक मेवाड़ी राणा ने अपने शत्रु को उसके घोड़े समेत काट डाला था, हम उस माता पद्मिनी के भक्त हैं जिसने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु धधकते अग्नि कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। खैर अभी तक सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, हमें आज एक प्रण लेने की जरूरत है, हम अपनी विरासतों को बचाएंगे, अपनी पहचान को फिर से जीवित करेंगे। कड़ी से कड़ी मिलाकर एक मजबूत जंजीर का निर्माण करेंगे और तब तक ये जंग जारी रखेंगे जब तक भारत में मौजूद आखिरी ऐतिहासिक इमारत को संवार नहीं देते।

लेखक : तनवीर सिंह सन्धू
(राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी, विरासत संरक्षण एवं जीर्णोद्धार समिति)